मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

साये फसाद नहीं करते

भीड़  का हिस्सा बन
तलवारों, त्रिशुलों को
उछालते हुए हवा में
वे कौन थे
जो अपने भी लगते थे
और पराये भी

अरे
ये तो वही था
अरे-अरे
इसे भी तो शायद देखा है 
मोहल्ले में कहीं

वे जो एकजुट थे
चुनिन्दा घरों को जलाने के लिए
और संकल्पित थे
खूनी होली खेल जाने के लिए

वे जिनके गलियों में निकलते ही
मीनारों, गुम्बदो और मेहराबों में
पसर जाती थी एक मनहूस ख़ामोशी
और गगनचुम्बी पातकों की
हो जाती थी बोलती बंद

वे कौन थे
जिनका खून उबलते-उबलते
रगों से निकल
फर्श पर बहने लगा

ये किसके हैं पैर काट कर
सड़क पर फेंके हुए
अरे ये तो पड़े हैं  
छत-विछत गलियों में
इंसानी देह कि शक्ल में

थम क्यों गए
घर जलाने, मांग उजाड़ने और
बच्चों को अनाथ करने के लिए
एकजुटता से उठने वाले कदम

अरे क्यों सोये हो
तुम सड़क पर बेसुध ?
क्यूँ नहीं उछाल रहे हो नारे अब ?
इंसानी शक्ल में बवाल करने वालों
मरहूम क्या हुए कि
साधू, पीर हो गए ?

तुम चुप हो क्योंकि
अब साये हो तुम
बेहतर है साये ही रहो
क्योंकि
साये फसाद नहीं करते
और
इंसानी शक्ल में
इंसान बने रहना
मुश्किल है तुम्हारे लिए !

** सुशील कुमार **

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