बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

सच और भ्रम

मैं हँसता हूँ
लेकिन कोई खास वजह नहीं है
मैं रोता हूँ
लेकिन मुझे कोई दर्द नहीं है
हँसने - रोने का
सुख-दुःख से
अब कोई सरोकार नहीं है

बेवजह हँसने-रोने की आदत  तो होगी
मगर मज़े की बात तो यह है
कि मुझे ऐसी कोई आदत भी नहीं है  

जहाँ तकनिकी रूप से
सही होता है
वहाँ हँस, रो लेता हूँ


मैं  जैसे जी रहा हूँ
क्या वह भ्रम है
या फिर
सब जैसे मर रहे हैं
वही सच है  

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सुशील कुमार
दिल्ली
24 अक्टूबर 2012 

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

मन का कारोबार

मन के कारोबार में
प्यार की पूंजी
दाव पर होती है

कोई बही-खाता नहीं होता
इसलिए
तुम्हारी शर्तें
सूद की तरह
चढ़ती गयीं मुझपर
जिसे चुकाते-चुकाते
अपने मूलधन को
खो रहा हूँ

तमाम मजबूरियों के बावजूद
मैं कारोबारी हो रहा हूँ

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सुशील कुमार
दिल्ली
18, अक्टूबर 2012

सोमवार, 17 सितंबर 2012

भूख लत है























अखबार में छपा था कि
तुरंत कार्रवाई होगी
उन इलाकों में
जहाँ भूख से हो रहीं हैं मौतें
आगे लिखा था
शिविर लगाया जायेगा
सबकी स्वस्थ्य जाँच होगी
और फ़ूड पैकेट बांटे जाएंगे


एक व्यक्ति का
मरने से पहले लिया गया
बयान भी छपा था
उसने कहा था कि
" पहले भूख मज़बूरी थी साहब
लेकिन अब लत है
और प्राण के साथ ही छूटेगी "

घरों में मिट्टी के बुझे चूल्हों में
राख-ही-राख बाकी है
लेकिन तंत्र बेखबर है कि
भूख जब लत बन जाती है
तब राख से भी जला ली जाती हैं मशालें

सालों तक अखबार छापता रहा
तुरंत कार्रवाई होगी
और जिनको भूख की लत थी
वे जलाते रहे मशालें

अखबार में फिर छपा कि
अब भूख से मौत की खबरें नहीं आती
अलबत्ता देशद्रोही करार दिए गए
और मुठभेड़ में मारे गए लोगों की
संख्या में भारी इज़ाफा हुआ है

इस प्रकार हो रही है
तुरंत कार्रवाई
और साबित हो रहा है कि
भूख लत है
एक जानलेवा लत


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सुशील कुमार
17 -18 सितम्बर 2012 की रात
रांची से इलाहबाद जाते हुए ट्रेन में

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

खुशी तो खुशी होती है

ये मेरा जूता कहाँ रखा है
खोजते हुए
रोज की तरह
सोच रहा था
कब मिलेगी खुशी
कहीं ये बस छलावा तो नहीं 

इतने में
मुझे झुका हुआ देख
वह पीठ पर जा बैठा
और बोला
चलो घोडा पुरे घर में घुमाओ


धत्त  तेरे की
जब ये ढूंढ़ सकता है
तो मैं क्यूँ नहीं

मैं हंसा

छोटी या बड़ी नहीं
खुशी तो खुशी होती है 



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सुशील कुमार
सितम्बर 14, 2012
रामगढ, झारखण्ड  

सोमवार, 10 सितंबर 2012

आसमानों को रंगने का हक

बारिश होने लगी फिर
उठने लगी
ज़मीन से सौंधी-सौंधी महक
जिसमें चीखने लगा खून
फिर मेरे बाप-दादाओं का

जिस जमीन को हम जोतते चले आये
हरी-भरी बनाते चले आये
सींचते चले आये खून से पीढ़ी-दर-पीढ़ी

जिस जमीन में मिल कर
हमारे खून की तीक्ष्ण गंध सौंधी हो गयी है
उस जमीन के लिए खून लेने का हक हमें चाहिए

शोषकों के संगीनों को
उनकी ही तरफ मोड़ने का हक भी हमें चाहिए

मिट्टी में सनी लालिमा से 
आसमानों को रंगने का हक भी हमें चाहिए
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सुशील कुमार
10, सितम्बर, 2012
रामगढ, झारखण्ड

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इस कविता को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 2 से 8 जून 2013 वाले अंक में प्रकाशित किया था |  

सोमवार, 7 मई 2012

आईना

एक ऐसा राजदार है मेरे कमरे में
जिसे पता हैं
मेरी सारी खूबियाँ और खामियाँ
फिर भी भरोसेमंद इतना कि
उम्र भर अपने सीनें में
उसने दफ़्न रखा है मेरी हकीकत को

वह तब-तब हँसता होगा मुझपर
जब-जब अपना चेहरा साफ़ करने के लिए
मैं उसका बदन चमकाता हूँ

भावहीन एकटक वर्षों से वह
सिर्फ चुपचाप निहारता है मुझे
जैसे मेरे अस्तित्व को
आत्मसात कर लेना चाहता हो
खुद में उतार कर

एक भावहीन तराजू में
रोज तौला जाता हूँ 
इस बात से बेखबर कि
किसी की आँखों में
मेरी गफलतों के लिए भी
है कुछ जगह

बस एक क्षणभंगुरता ही है
जो हमदोनों को
समानुभूति की धरातल पर
एक साथ खड़ा करती है

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सुशील कुमार
दिल्ली
मई 7, 2012
      

शनिवार, 5 मई 2012

बदन पर सिंकतीं रोटियाँ

गरम-गरम रोटियों के लिए
तुम्हारे भी पेट में
आग धधकती होगी
कितना अच्छा लगता है
जब माँ या पत्नी तुम्हारे लिए
सेकतीं है गरमा-गरम रोटियाँ
लेकिन
एक गली है इस शहर में
जहाँ रोटियाँ तवे की मुहताज नहीं हैं
बल्कि बदन पर सेंकीं जाती है

यहाँ बदन को तपाकर 
इतनी गर्मी पैदा कर ली जाती है कि
उस पर रोटियाँ सेंकी जा सके

तुम जान भी नहीं पाते हो
कि  तुम्हारी सहानुभूति के छींटे
कब छनछनाकर उड़ जाते हैं
इस लहकते शरीर से

यहाँ शरीर की रगड़न से पैदा हुई
चिंगारियों को अंगीठी में सहेज कर
क्रूर सर्द रातों को गुनगुना बनाया जाता है 

इस गली तक चल कर आते हैं
शहर भर के घरों से रास्ते
और शायद यहीं पर खत्म हो जाते हैं
क्यूंकि इस गली से कोई रास्ता
किसी घर तक नहीं जाता

तुम बात करना अगर मुनासिब समझो
तो जरा बताओ कि क्या तुमनें कभी
बदन पर सिंकतीं हुई रोटियों को देखा है यहाँ
शायद नहीं देखा होगा
क्यूंकि यहाँ से निकलते ही
जब तुम अपनी पीठ
इस गली की तरफ करते हो
नजरें चुराने में माहिर तुम्हारी आँखें
सिर्फ अपने घर के दरवाजे पर टिकी होती है | 

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सुशील कुमार 
मई 5, 2012
दिल्ली 

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

एक मौत ही साम्यवादी है

वह माटी की सौंधी गंध का मुरीद था
सुनता था कहीं कोई चटकन सुनायी तो नहीं देती
कलियों के फूल बनने की प्रक्रिया में
इन्द्रधनुष की खबर
गाँव भर में देता फिरता सबसे पहले
पैरों के तलवे को छूने वाली
एक-एक ओस की बूंद को वह पहचानता था
बसंत में वह ऐसे झूमता जैसे 
गुलमोहर और पलास उसी के लिये रंग बिखेरने आये हों

अगर अपनी धुन में जीता
तो वह कवि होता
लेकिन फांकाकशी में
चाँद भी रोटी दिखता है

कब तक सौन्दर्यबोध में जीता
और दवाईयों के लिए
लोगों के सामने हाथ फैलाता

भूख की लड़ाई में
एक के बाद एक
सबने अलविदा कहा  
पिता, बड़ा भाई, माँ और चाचा
और वह जान पाया कि
हर काली रात एक
सुर्ख सुबह पर जा कर ख़त्म होती है
जहाँ सब के हिस्से में एक बराबर आती है मौत
इस क्रूर व्यवस्था में
एक मौत ही साम्यवादी है

उसने जो पहली कविता लिखी
वह कविता नहीं, सुलगते कुछ सवाल थे
या कहें चंद सवालात की पूरी कविता

कि आखिर वह कौन है जो
समाजवादी तरीकों से मौत तय करता है
और जिंदगी बाँटते समय पूंजीवादी हो जाता है ?

वह कौन सा फार्मूला है कि
जिन मुश्किल दिनों में बामुश्किल
मेरे घर में कफ़न खरीद कर लाये जाते हैं
उसी दौर में पडोसी के घर
चर्बी घटाने की मशीनें आती है ?


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सुशील कुमार
18, अप्रैल 2012
दिल्ली  

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इस कविता को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 2 से 8 जून 2013 वाले अंक में प्रकाशित किया था |  

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

मुखौटा

रोज की तरह 
शाम को घर लौटा

उतार दिया एक-एक कर
कमीज, पतलून, चश्मा और जूते
बेटे को गोद में उठाया ही था कि
वह जोर-जोर से रोने लगा

ऐसा लगा किसी अजनबी नें
लपक लिया हो उसको

मैनें भाग कर आईने में
अपना चेहरा देखा
ओह, कई चेहरे चिपके हैं परत-दर-परत

एक-एक कर
उतारता गया चेहरों को

ये कन्सलटेंट गया
ये समाजसेवी
ये एक्टिविस्ट
ये प्रशिक्षक
ये मूल्यांकनकर्ता
ये कवि भी गया

अब अपनी जेब से
निकाल कर पापा का चेहरा
चिपकाया खाली-खाली से मुखड़े पर

बेटे को गोद में उठाया
और
घोडा-घोडा खेलता रहा बहुत देर तक
उसके साथ
 
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सुशील कुमार
दिल्ली, 14 , अप्रैल 2012
 श्रोत : http ://sambhawnaonkashahar.blogspot.in

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

शहर में घर का सपना

माथे के पसीने का
एड़ी तक पहुँच जाने पर भी
पचास गज का एक अदद फ्लैट
सपना ही बना रहा

शहर में गजों में नापी जाती है तुम्हारी औकात
गाँव का कट्ठा, बीघा और एकड़ के मुकाबले
पचास, सौ या दो सौ गज की हैसियत
बहुत बड़ी है शहर में

गाँव में सिर्फ कब्र नापी जाती है गज में
और वह दो गज जमीन भी  
तुम्हारी वास्तविक हैसियत बताने के लिए
बड़ी पड़ जाती है


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सुशील कुमार
दिल्ली, अप्रेल 10, 2012 

शुक्रवार, 9 मार्च 2012

बुरका

जब खुदा मेरी देह बना रहा था
उसी समय उसने
तुम्हारी आँखों पर
बनाया था हया का पर्दा

तुमनें मन की कालिमा से
एक लिबास बनाया
और
हमने पहन लिया 
तुम्हारी कालिख छिपाने के लिए

तुम हमेशा मुझे पर्दे के मायने समझाते हो
और मैं हाँ-हाँ में सिर हिलाती हूँ
मन करता है
तुम्हारी बातों की मुखालफत करूँ

मैं जानती हूँ कि
बेहयाई मेरे बदन में नहीं है
जो ढँक लूँ किसी लिबास से
बल्कि
वो तैर रही है तुम्हारी आँखों में
बागी, बेख़ौफ़ लड़ती हुई हर पल
हया के पर्दे से

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सुशील कुमार
दिल्ली
9, मार्च 2012   

गुरुवार, 8 मार्च 2012

गुंजाइशों का दूसरा नाम

लो वह दिन भी आ गया
जब हमारा खून गर्म तो होता है
लेकिन
उबलता नहीं है

सूख कर कड़कड़ाई हुई साखों में
रगड़ तो होती है मगर
अब वो चिंगारी नहीं निकलती
जिससे धू-धू कर
जंगल में आग लग जाती थी

आयरन की कमीं वाले हमलोगों नें
अपने खून में लोहे की तलाश भी छोड़ दी है
जिससे बनाए जाते थे खंजर

यह
उबाल रहित खून
आग रहित जंगल और
खंजर रहित विद्रोह का नया दौर है

फिर भी मजे की बात तो यह है कि
यहाँ समाजवाद
अजय भवन के मनहूस सन्नाटे में
आगंतुकों की बाट जोहती
कामरेड अजय घोष की मूर्ति नहीं
बल्कि
छांट कर रखी गयीं
पुस्तकालय की किताबों के चंद मुड़े हुए पन्नों में
बची गुंजाइशों का दूसरा नाम है

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सुशील कुमार
दिल्ली
8, मार्च 2012 

शनिवार, 3 मार्च 2012

सलीब

दिशाओं के अहंकार को ललकारती भुजाएं
और
चीखकर बेदर्दी की इन्तहां को चुनौती देतीं
हथेलियों में धसीं कीलें 

एक-एक बूंद टपकता लहू
जो सींचता है उसी जमीन पर
लगे फूल के पौधों को
जहाँ सलीब पर खड़ा है सच
जब भी लगता है कि
हार रहा है मेरा सच
सलीब को देखता हूँ

लगता है कोई खड़ा है मेरे लिए
झूठ के खिलाफ
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सुशील कुमार
दिल्ली
मार्च 3, 2011

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

लिखता हूँ कविता

बेचने के लिए नहीं लिखता था कविता 
इसलिए लिखता रहा
और तकिये के नीचे दबाता रहा

कुछ ग़ुम हो गयीं और कुछ ग़ुम कर दी गयीं 
कुछ कुम्हलाई सी सोयी रही चुपचाप
कुछ रुठीं रहीं मुझसे कई बरस
कुछ सरक कर फर्श पर आ गिरी 
कुछ नें रेंगना शुरू कर दिया
कुछ चीखने लगीं
कुछ उछालने लगीं हवा में नारे
कर के अपनी मुठ्ठी बंद दस्तख देने लगीं
प्रकाशकों के दरवाजों पर
कुछ मंच देखते ही चढ़ बैठी और तांडव कर डाला

बेचने के लिए नहीं लिखता था
इसलिए कोई मोल भी न लगाया इनका
अनमोल हैं ये
लेकिन अब कमजोर नहीं है
कि तकिये से मुंह दबा दूँ इनका   

चीखतीं हैं अब, उठ खड़ी होती हैं
कभी-कभी मेरे भी खिलाफ

ये मेरी नहीं रह गयीं हैं अब
उनकी हैं जिनकी आवाज रह गयी है
दबी हुई सी
उनकी है जिनकी आत्मा में
दबे हैं बगावत के शोले

लिखता हूँ कविता, बेचता  नहीं हूँ
इसलिए मौकापरस्त नहीं बल्कि
जुल्मों सितम की काली कोठरी में
बगावत का चीराग हैं कवितायें मेरी

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सुशील कुमार
फरवरी 25, 2012
दिल्ली      

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

हम-तुम

हम वो हैं जिसका 
कभी तुम्हे गुमाँ न हुआ 
तुम वो हो जिसकी वजह से 
हम मगरूर कहे जाते हैं जमाने में
 
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(सुशील कुमार)
फरवरी 7, 2012  दिल्ली

सोमवार, 30 जनवरी 2012

हसीन इत्तेफ़ाक

ये महज़ कोई
हसीन इत्तेफ़ाक तो नहीं हो सकता

कि तुम जब आये
तब
हासिल करने के लिए पूरी कायनात थी

और जब गए
तब
खोने के लिए कुछ भी नहीं है

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(सुशील कुमार)
जनवरी 30, 2012
राजकोट, गुजरात

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

दरियाई आँखें

तश्वीर गूगल से साभार
















अपनी आगोश में दरिया 
किसी को देर तक पनाह नहीं देता 

ये फितरत ही है उसकी 
कि आगोश में लेकर
साहिल के हवाले कर देता है एक रोज

शुक्र है कि उन दरियाई आँखों पर
कभी ऐतबार न हुआ मुझको . . .


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(सुशील कुमार)
जनवरी 27 , 2012
राजकोट, गुजरात