शनिवार, 24 मार्च 2012
शुक्रवार, 9 मार्च 2012
बुरका
जब खुदा मेरी देह बना रहा था
उसी समय उसने
तुम्हारी आँखों पर
बनाया था हया का पर्दा
तुमनें मन की कालिमा से
एक लिबास बनाया
और
हमने पहन लिया
तुम्हारी कालिख छिपाने के लिए
तुम हमेशा मुझे पर्दे के मायने समझाते हो
और मैं हाँ-हाँ में सिर हिलाती हूँ
मन करता है
तुम्हारी बातों की मुखालफत करूँ
मैं जानती हूँ कि
बेहयाई मेरे बदन में नहीं है
जो ढँक लूँ किसी लिबास से
बल्कि
वो तैर रही है तुम्हारी आँखों में
बागी, बेख़ौफ़ लड़ती हुई हर पल
हया के पर्दे से
------------------------------
सुशील कुमार
दिल्ली
9, मार्च 2012
उसी समय उसने
तुम्हारी आँखों पर
बनाया था हया का पर्दा
तुमनें मन की कालिमा से
एक लिबास बनाया
और
हमने पहन लिया
तुम्हारी कालिख छिपाने के लिए
तुम हमेशा मुझे पर्दे के मायने समझाते हो
और मैं हाँ-हाँ में सिर हिलाती हूँ
मन करता है
तुम्हारी बातों की मुखालफत करूँ
मैं जानती हूँ कि
बेहयाई मेरे बदन में नहीं है
जो ढँक लूँ किसी लिबास से
बल्कि
वो तैर रही है तुम्हारी आँखों में
बागी, बेख़ौफ़ लड़ती हुई हर पल
हया के पर्दे से
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सुशील कुमार
दिल्ली
9, मार्च 2012
गुरुवार, 8 मार्च 2012
गुंजाइशों का दूसरा नाम
लो वह दिन भी आ गया
जब हमारा खून गर्म तो होता है
लेकिन
उबलता नहीं है
सूख कर कड़कड़ाई हुई साखों में
रगड़ तो होती है मगर
अब वो चिंगारी नहीं निकलती
जिससे धू-धू कर
जंगल में आग लग जाती थी
आयरन की कमीं वाले हमलोगों नें
अपने खून में लोहे की तलाश भी छोड़ दी है
जिससे बनाए जाते थे खंजर
यह
उबाल रहित खून
आग रहित जंगल और
खंजर रहित विद्रोह का नया दौर है
फिर भी मजे की बात तो यह है कि
यहाँ समाजवाद
अजय भवन के मनहूस सन्नाटे में
आगंतुकों की बाट जोहती
कामरेड अजय घोष की मूर्ति नहीं
बल्कि
छांट कर रखी गयीं
पुस्तकालय की किताबों के चंद मुड़े हुए पन्नों में
बची गुंजाइशों का दूसरा नाम है
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सुशील कुमार
दिल्ली
8, मार्च 2012
जब हमारा खून गर्म तो होता है
लेकिन
उबलता नहीं है
सूख कर कड़कड़ाई हुई साखों में
रगड़ तो होती है मगर
अब वो चिंगारी नहीं निकलती
जिससे धू-धू कर
जंगल में आग लग जाती थी
आयरन की कमीं वाले हमलोगों नें
अपने खून में लोहे की तलाश भी छोड़ दी है
जिससे बनाए जाते थे खंजर
यह
उबाल रहित खून
आग रहित जंगल और
खंजर रहित विद्रोह का नया दौर है
फिर भी मजे की बात तो यह है कि
यहाँ समाजवाद
अजय भवन के मनहूस सन्नाटे में
आगंतुकों की बाट जोहती
कामरेड अजय घोष की मूर्ति नहीं
बल्कि
छांट कर रखी गयीं
पुस्तकालय की किताबों के चंद मुड़े हुए पन्नों में
बची गुंजाइशों का दूसरा नाम है
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सुशील कुमार
दिल्ली
8, मार्च 2012
शनिवार, 3 मार्च 2012
सलीब
दिशाओं के अहंकार को ललकारती भुजाएं
और
चीखकर बेदर्दी की इन्तहां को चुनौती देतीं
हथेलियों में धसीं कीलें
एक-एक बूंद टपकता लहू
जो सींचता है उसी जमीन पर
लगे फूल के पौधों को
जहाँ सलीब पर खड़ा है सच
जब भी लगता है कि
हार रहा है मेरा सच
सलीब को देखता हूँ
लगता है कोई खड़ा है मेरे लिए
झूठ के खिलाफ
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सुशील कुमार
दिल्ली
मार्च 3, 2011
और
चीखकर बेदर्दी की इन्तहां को चुनौती देतीं
हथेलियों में धसीं कीलें
एक-एक बूंद टपकता लहू
जो सींचता है उसी जमीन पर
लगे फूल के पौधों को
जहाँ सलीब पर खड़ा है सच
जब भी लगता है कि
हार रहा है मेरा सच
सलीब को देखता हूँ
लगता है कोई खड़ा है मेरे लिए
झूठ के खिलाफ
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सुशील कुमार
दिल्ली
मार्च 3, 2011
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