शनिवार, 23 नवंबर 2013

जानता हूँ




















जब-जब मैं 
बाहर से भीतर की ओर जाता हूँ 
मुझे संकरी गलियों में मिलते हैं 
कुम्हलाये सपने,
संघर्ष की निशानियाँ 
और मंजिल से ठीक पहले 
साथ छोड़ गए साथियों के पदचिन्ह 

झाड़ता हूँ धूल 
चूमता हूँ उनको 

जानता हूँ 
जब मैं मुकाम पर पहुंचूंगा 
ये ही पूजे जायेंगे 

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सुशील कुमार 
दिल्ली 23 नवम्बर 2013 

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

दर्द





























किताबी लफ्फाजियों से बहुत दूर 
तुम मुझसे जहां मिलते हो 
वहाँ अपनी धुंधली परछाईयों में 
तुम होते हो 
मैं होता हूँ 
और वेदना के चटके हुए पैमाने होते हैं 

दर्द की दरकती हर परत में 
मुस्कराते हैं हम 
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सुशील कुमार 
दिल्ली, 12 नवम्बर 2013

बुधवार, 14 अगस्त 2013

खबर


















सब जानने लगे हैं कि 
आदमी कुत्ते को काट ले 
तो खबर है 

खबरों के कारोबार में 
जो बिकता है, वो छपता है 
इसीलिए अखबार 
तय नहीं कर पाते 
कि विछिप्त बलात्कारी है 
या वह छप्पन वर्षीय स्त्री 
जो बेघर है 

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सुशील कुमार 
दिल्ली, 6 अगस्त 2013

रविवार, 14 जुलाई 2013

लोकसत्य में प्रकाशित आलेख


में रविवार 14 जुलाई, 2013 को (पृष्ठ 6 पर) छपा आलेख 


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प्रभात खबर में प्रकाशित दो कविताएँ

में रविवार 14 जुलाई 2013 के सृजन पृष्ठ पर छपी है मेरी दो कविताएँ | 

( ई-पेपर पढने के लिए लिंक को क्लिक करें ) 
 

बुधवार, 10 जुलाई 2013

साहित्य कुञ्ज (कनाडा)

कनाडा से संचालित पाक्षिक ई-साहित्यिक वेब-पत्रिका "साहित्य कुञ्ज" में मेरी कविताओं का पन्ना

(ऑनलाइन पढने के लिए निचे तश्वीर पर क्लिक करें)


सच चीखता है



केदारनाथ की तबाही में 
असंख्य लाशों पर 
तैनात एक मगरूर लिंग 
अपनी उपासना के    
यथाशीघ्र शुरू होने की 
बाट जोह रहा है 
और इंसानी दिमाग 
दाह-संस्कार की जगह आरती 
के सवाल पर चुप है  

क्रूर धर्मान्धताओं को
शालीनता से नजरअंदाज करने की
अश्लील कोशिशों पर 
इंसानी दिमाग की चुप्पी 
हैरान करती है 

सबके पास हैं आँखें 
और यह विवेक भी 
कि इन आँखों को सुविधानुसार 
खोला और बंद किया जा सके 
इच्छानुसार अनदेखा किया जा सके 
नंगी सच्चाईयों को 

हैरतंगेज है यह 
और सच भी 
कि इंसानी दिमाग 
जो संभावनाओं की असंख्य 
आकाशगंगाओ को एक साथ
नियंत्रित करने का सामर्थ्य रखता है  
उसमें ही कहीं छिपी है 
घोर अन्धकार से भरी 
एक ऐसी सुरंग 
जहाँ से लौटकर 
कोई प्रतिक्रिया, 
कोई आवाज नहीं आती 

अगर ऐसा नहीं होता 
तो भूगोल का शिक्षक, 
जो रोज यह पढाता है कि 
सूरज न तो उगता है 
और न ही डूबता है 
बल्कि पृथ्वी ही उसका चक्कर लगाती है,
अपने घर में छठ क्यूँ मनाता ?

हमारी कलंदरबाजियों नें 
आँखों के साथ कुछ ऐसा 
खिलवाड़ किया है 
कि यह वही देखने लगी हैं 
जिसमें तर्क की कोई गुंजाईश न हो 

लेकिन
इस बात से कब तक
बेखबर रहा जा सकता है 
कि शालीनता से
नजरंदाज कर दिया गया सच
संभावनाओं के असंख्य आकाशगंगाओ में 
चीखता है 
और अमर हो जाता है 

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सुशील कुमार
दिल्ली, 10 जुलाई 2013  
(तश्वीर : गूगल से साभार)

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शब्दार्थ : छठ 

उगते और डूबते सूर्य की उपासना का लोकपर्व छठ, कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। सख्त नियम-कायदों का पालन करते हुए मनाया जाने वाला यह पर्व, मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, नेपाल के तराई क्षेत्रों और आजकल दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में भी में मनाया जाता है। 
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रविवार, 7 जुलाई 2013

ई-साहित्यिक पत्रिका नव्या डॉट इन में मेरी रचनाओं का पन्ना

ई-साहित्यिक पत्रिका नव्या डॉट इन में मेरी रचनाओं का पन्ना
(ऑनलाइन पढ़ने के लिए तश्वीर पर क्लिक करें)

सादर ब्लॉगस्ते में प्रकाशित मेरी कविता कविताएँ

सादर ब्लॉगस्ते में प्रकाशित मेरी कविताएँ 



(कृपया ऑनलाइन पढने के लिए तश्वीर पर क्लिक करें)   
चाँद की वसीयत 
हाँफ  रही है पूँजी 



स्वर्ग विभा डॉट कॉम पर मेरी कविताओं का पन्ना

(वेबसाइट पर पढने के लिए तश्वीर पर क्लिक करें)

International News and Views.Com पर मेरी कविताओं का पन्ना



"जनसत्ता" (रविवारी) में प्रकाशित लेख - "चुनौतियों के बरक्स"

मेरा एक लेख विश्व में आपदा प्रबंधन की स्थिति पर 30 जून 2013 को "जनसत्ता" (रविवारी) में प्रकाशित हुआ है । आप भी देखिए ...
(ई-पेपर पढने के लिए खबर पर क्लिक करें) 
चुनौतियों के बरक्स 


ट्रू मीडिया के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित कविता "भूख लत है"

ट्रू मीडिया के जुलाई 2013 अंक का साहित्य पन्ना


शुक्रवार, 28 जून 2013

लोकसत्य के साहित्य पन्ने पर 28 जून 2013 को छपी मेरी दो कविताएँ ।

लोकसत्य के साहित्य पन्ने पर 28 जून 2013 को छपी मेरी दो कविताएँ ।
(सम्पादक, राकेश त्रिपाठी जी, का आभार)


पूरा पृष्ट देखिये 


बुधवार, 26 जून 2013

मतलब होता है



होता है 

हर बार  
लाठी चार्ज का 
मतलब होता है 

शासन की 
फाईलों में नहीं 
हमारे कन्धों पर 
दर्ज़ होता है 
जिसका जवाब 
मांगती हैं 
हमारी पीढ़ियाँ 

दमन की 
हर कोशिश का 
हर बार कोई 
मतलब होता है 
और मतलब होता है 
हर बार 
हमारी चुप्पियों का भी  


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सुशील कुमार 
दिल्ली, 26 जून, 2013

(तश्वीर : गूगल से साभार)

सोमवार, 24 जून 2013

सबसे ज़रूरी शर्त



दोनों हाथों से 
मैं पेट पकड़ कर 
भूख टटोल रहा था 
कल-परसो से नहीं
बरसों से 

न जाने तुम कब आए 
और मेरी छाती पर
लिख गए इन्कलाब 
  
बस उस दिन से
मेरे सवालात सिर्फ मेरे नहीं रहे
आसमान की लालिमा 
चेहरे पर उतर आई 
पेट को जकड़कर रखे हाथ 
मुट्ठी बन हवा में लहराने लगे 

फिर बारी आई कन्धों की
जहाँ झंडे फहराए गए 

सिर की, 
जहाँ टोपी लगाई गई 

आँखों की,
जहाँ सजाये गए 
बदले हुए कल के सामान 

मुँह की, 
जिसमें बारूद भरे गए 

छाती, कंधे, सिर और आँखों के बाद 
तुम ठहर गए 
मैनें तुम्हें अपना पेट दिखाया 
जो अभी भी खाली था 
और उपलब्ध भी
तुमने मुनासिब नहीं समझा 
इस संदिग्ध पेट को हाथ लगाना     

तुम जानते थे 
अच्छी तरह कि 
तुम्हारे बदलाव की लहर में 
मेरे पेट का खाली रहना 
सबसे ज़रूरी शर्त है 


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सुशील कुमार 
दिल्ली, 25 जून 2013

(तश्वीर : गूगल से साभार)

घर-बाज़ार





















जैसे-जैसे मुहल्ले में 
भीड़ बढ़ती गई 
बाज़ार को जगह देने के लिए 
घर सिमटने लगे 
पता ही नहीं चला  
कब दबे-पाँव घरों में
घुस आया बाज़ार   

शहर के तंबू में 
पनाह लिए हुए 
गाँव सोचता है  
कि कोई और गाँव आए  
तो दुआ-सलाम हो 


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सुशील कुमार 
दिल्ली, 24 जून, 2013



(तश्वीर : गूगल से साभार) 

बुधवार, 19 जून 2013

चाँद की वसीयत























चाँद नें अपनी रातों की बादशाहत का विस्तार करना चाहा
उसने बनाई एक वसीयत 
जिसमें एक मटरगश्त को 
आधी सल्तनत दे दी गई 
जिसे रात भर जागने और भटकने की लत हो और 
जो बुन सके सौम्यता की इतनी बड़ी चादर 
जिससे पूरी कायनात पर जिल्द चढ़ाया जा सके 

इस तरह मेरे हिस्से में जमीन आई और 
उसके पास रहा आसमान  

रातों को ये दोनों सुलतान 
भटकते हैं अपनी-अपनी रियाया की थकान 
बटोरने के लिए 
जिसे ढ़ोकर उतर जाते हैं 
क्षितिज की गहरी घाटियों में 

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सुशील कुमार 
दिल्ली 
19 जून, 2013   

मंगलवार, 11 जून 2013

रौशनदान













सोचता हूँ किसने बनाया होगा
सबसे पहले अपने घर में रौशनदान

दिन ढलते ही रौशनदान से  
अन्धेरा भी दाखिल हो जाता है कमरे में 
और मुझको लगता है कि  
रौशनदान की मिलीभगत 
रौशनियों से कम और अंधेरों से ज्यादा है  

घर के अन्दर बना एक घर
जहाँ मुझसे ज्यादा समय 
कबूतर अपनी मादा के साथ रहता है 
जिनकी गुटरगूँ मुझे ही दखलअंदाज बतातीं हैं 
मैं अक्सर दबे पाँव कमरे से बहार आ जाता हूँ 

नींद से ठीक पहले 
जब ऑंखें और कमरे को बत्ती बंद होती है 
मैं देख पाता हूँ 
एक रौशनदान जड़ा है दूर क्षितिज पर 
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सुशील कुमार 
दिल्ली 
12 जून 2013

शनिवार, 8 जून 2013

चार मुक्तक : सुशील कुमार

चार मुक्तक : सुशील कुमार 

(1)
लबों पर इलज़ाम लगे हैं, खामोश रह जाने के लिए
मुजरिम अल्फ़ाज भी हैं, साथ न निभाने के लिए 
है कहाँ मुमकिन बयान-ए-बेकरारी
ये फलसफा तो है बस समझ जाने के लिए

(2)
प्रेम की हर कसौटी पर खरा उतरा हूँ 
दकियानूस जमाने के लिए मैं बड़ा खतरा हूँ
दुनियाँ के रास्ते अब मुश्किल न होंगें
तेरी जुल्फ़ की पेंचों से होकर जो गुजरा हूँ

(3)
चारो तरफ है अफरातफरी, 
ये कैसी डगर है 
बुझे-बुझे चेहरों वाला कैसा महानगर है
राशन की कतार में खडा हूँ सुबह से
गाँव से बिछड़कर जीवन एक मीठा जहर है


(4)
जीवन के सफ़र में देखो, है कितना तन्हा आदमी 
रहता है वह महफ़िलों में, फिर भी है तन्हा आदमी
आता है इस रंग मंच पर तन्हा अपना पाठ लिए 
जाएगा भी इस भू पटल से देखो तन्हा आदमी

गुरुवार, 6 जून 2013

अनगढ़ पत्थर

तश्वीर गूगल से साभार 





















सदियों से
हमें यह सिखाया गया है कि 
पत्थर छेनी और हथौड़ी से तराशे जाते हैं
और हम देते चले आये हैं 
पाषाण खण्डों को विभिन्न आकार

छेनी की धार और हथौड़ी की मार 
को पत्थर पहचानते हैं और 
जो तराशे जाने को नियति मानते हैं 
पूज्यनीय या शोभनीय हो जाते हैं 

विशाल पर्वतों और दुर्गम पठारों में 
आज भी हैं विलक्षण शिलाखण्ड 
जो तराशे नहीं गए
इसलिए पूजे या सजाये भी नहीं गए

पहाड़ों के स्वाभाविक सौन्दर्य का हिस्सा बनकर
वे चेतना के अंकुरण की बाट जोह रहे हैं 

जब भी कभी जीवन संगीत  
इन पहाड़ों पर बजेगा
सबसे पहले उठ खड़े होंगे 
ये अनगढ़ पत्थर
आकार से मुक्त और चेतन 


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सुशील कुमार 
दिल्ली 
7 जून 2013

मंगलवार, 4 जून 2013

हांफ रही है पूंजी

तश्वीर गूगल से साभार  


















बहुत तेजी से भागती है पूंजी 
मानो वक्त से आगे निकल जाना हो इसे 
मानो अपनी मुट्ठी में दबोच लेना हो 
समूचा ब्रह्माण्ड समूची धरती, 
खेत, नदियाँ और पहाड़ 
बच्चों की किलकारियां, 
मजदूरों का पसीना, 
किसानों का श्रम, 
मेहनतकशों के हकूक,
आज़ादाना नारे, 
और वह सब कुछ जो उसकी रफ़्तार के आड़े आता हो 
वह बढ़ाना चाहती है अपनी रफ़्तार प्रतिपल 
लेकिन बहुत जल्दी हांफने लगती है पूंजी  

और जब पूंजी हांफने लगती है  
तब खेतों में अनाज की जगह बन्दुकें उगाई जाती है 
भूख के जवाब में हथियार पेश किये जाते हैं
परमाणु, रासायनिक और जैविक 

पूंजी पैदा करती है दुनियां के कोने-कोने में रोज नए  
भारत-पकिस्तान 
त्तर-दक्षिण कोरिया 
चीन-जापान 
इसराइल-फिलिस्तीन 

फिर हंसती है दोनों हाँथ जंघों पर ढोंक कर 
सोवियत संघ के अंजाम पर 
अफगानिस्तान पर 
ईराक पर 
मिश्र पर 

अपनी हंसी खुद दबाकर
बगलें झांकती है 
पूंजी
वेनुजुवेला और क्यूबा के सवाल पर 

दम फूल रहा है प्रतिपल  
हांफ रही है पूंजी 
और खेतों में अनाज की जगह उग रहीं हैं बन्दुकें 


पूंजी आत्मघाती हो रही है दिन-ब-दिन 

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सुशील कुमार 
दिल्ली,
जून 5, 2013