चार मुक्तक : सुशील कुमार
(1)
लबों पर इलज़ाम लगे हैं, खामोश रह जाने के लिए
मुजरिम अल्फ़ाज भी हैं, साथ न निभाने के लिए
है कहाँ मुमकिन बयान-ए-बेकरारी
ये फलसफा तो है बस समझ जाने के लिए
(2)
प्रेम की हर कसौटी पर खरा उतरा हूँ
दकियानूस जमाने के लिए मैं बड़ा खतरा हूँ
दुनियाँ के रास्ते अब मुश्किल न होंगें
तेरी जुल्फ़ की पेंचों से होकर जो गुजरा हूँ
(3)
चारो तरफ है अफरातफरी, ये कैसी डगर है
बुझे-बुझे चेहरों वाला कैसा महानगर है
राशन की कतार में खडा हूँ सुबह से
गाँव से बिछड़कर जीवन एक मीठा जहर है
(4)
जीवन के सफ़र में देखो, है कितना तन्हा आदमी
रहता है वह महफ़िलों में, फिर भी है तन्हा आदमी
आता है इस रंग मंच पर तन्हा अपना पाठ लिए
जाएगा भी इस भू पटल से देखो तन्हा आदमी
(1)
लबों पर इलज़ाम लगे हैं, खामोश रह जाने के लिए
मुजरिम अल्फ़ाज भी हैं, साथ न निभाने के लिए
है कहाँ मुमकिन बयान-ए-बेकरारी
ये फलसफा तो है बस समझ जाने के लिए
(2)
प्रेम की हर कसौटी पर खरा उतरा हूँ
दकियानूस जमाने के लिए मैं बड़ा खतरा हूँ
दुनियाँ के रास्ते अब मुश्किल न होंगें
तेरी जुल्फ़ की पेंचों से होकर जो गुजरा हूँ
(3)
चारो तरफ है अफरातफरी, ये कैसी डगर है
बुझे-बुझे चेहरों वाला कैसा महानगर है
राशन की कतार में खडा हूँ सुबह से
गाँव से बिछड़कर जीवन एक मीठा जहर है
(4)
जीवन के सफ़र में देखो, है कितना तन्हा आदमी
रहता है वह महफ़िलों में, फिर भी है तन्हा आदमी
आता है इस रंग मंच पर तन्हा अपना पाठ लिए
जाएगा भी इस भू पटल से देखो तन्हा आदमी
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