गोधुली जब रंग-भेद मिटा रही थी
जब झुण्ड में बगुले
अपनी नीड़ की ओर जा रहे थे
जब सूरज इंडिया गेट के दोनों दीवारों के बीच
अमर जवान ज्योति में डूब रहा था
और
आईसक्रीम के पंक्तिबद्ध
ठेलों का मेला लगने लगा था
मुझसे मिलने आई थी शाम
इंडिया गेट पर
लालिमा की असंख्य परतें
अंतहीन आकाश का कवच बनकर
लुभा रही थी
नो फ्लाईंग जोन में
सुरक्षा नियमों से बेख़बर
परिन्दे उड़ रहे थे
संगीनों के ऊपर
बच्चे भेलपूड़ी खाकर
कागज की प्लेट को
कूड़ेदान में डालकर
कमीज में हाथ पोंछ रहे थे
पुलिसवाले के पीछे बैठा ज्योतिषी
बता रहा था भविष्य
और
लैम्प-पोस्ट के नीचे बैठा
चित्रकार बना रहा था
पर्यटकों के सजीव चित्र
बगल में बिक रहे खिलौनों को
नजरअंदाज करके
फूलों सी महकती हुई एक बच्ची
गजरे बेच रही थी
बढ़ते अँधेरे के साथ-साथ
वृक्ष के तनों के पास
अन्तरंग हो रहे युगलों की छवि
स्याह होती जा रही थी
धीरे-धीरे पुलिस कंट्रोल रूम
की गाड़ियाँ बढने लगी थी
और पर्यटक घटने लगे थे
जाते जाते पापा से
पूछ रहा था एक मासूम
बन्दुक पर उलटी टोपी का मतलब
मैं पढ़ रहा था दीवारों मे खुदे
शहीदों के नाम
जा रही थी मुझसे मिल कर
इंडिया गेट पर एक शाम
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सुशील कुमार
दिल्ली, 03, मई 2014
(तस्वीर : गूगल से साभार)
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