नुमाईश


संभावनाओं के शहर में आपका स्वागत है| कभी-कभी मैं महसूस करता हूँ कि मेरा मन समंदर की तरह बाहर से गंभीर और भीतर से अशांत हो गया है| उठने लगी है कल्पनाओं, विचारों और विम्बों की हजारों तरंगें मन-मष्तिष्क में और मैं डूबने लगता हूँ अपने समूचे अस्तित्व के साथ| न कोई हमकदम होता है और न कोई सहारा| बस लगता है कि तय है मेरा डूब जाना और होता भी यही है| लहरें मुझे दूर, बहुत दूर तक अपनी बेलगाम रफ़्तार से बहा ले जाती है| मैं महसूस कर सकता हूँ मेरे अस्तित्व की घुलनशीलता को और लहरों का हिस्सा बन खूब मस्ती से कभी साहिल से टकराता हूँ तो कभी दूर समंदर में समा जाता हूँ|

सुबह रौशनी की रेत पर बेसुध पड़ा पाता हूँ खुद को और अचानक कल वाली बात याद आ जाती कि समंदर कुछ भी अपने पास नहीं रखता| मुझ नाचीज को उसने गोते खिला कर किनारों के हवाले कर दिया आज भी| ये मेरा मुकद्दर है कि जिन्दा हूँ आज रात फिर डूब जाने के लिए|

जब भी किनारे पर फेंक दिया जाता हूँ, अपने साथ कुछ मोती, कुछ मुंगे जरूर लाता हूँ| दिन भर इन रत्नों की नुमाईश संभावनाओं के शहर में लगता हूँ| कुछ लुट जाते हैं, कुछ समेट कर रख लेता हूँ पिटारे में कल की नुमाईश के लिए|

आप मेरी नुमाईश देखने आये हैं, आपका शुक्रिया!
साभार,
सुशील  

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